हिंदी और हम

हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नही किया
डॉ राजेन्द प्रसाद
कुछ दिन पहले बड़ी जोर शोर से हिंदी दिवस मनाया गया, सरकारी दफ्तरों और विश्वविद्यालयों में बड़े बड़े हिंदी समारोह का आयोजन किया गया, बड़े बड़े बैनर लगाए गए। अखबारों में हिंदी दिवस विशेष पृष्ठ छापे गए लेकिन उसके बाद, उसके बाद अगले ही दी अखबार का वो पृष्ठ गायब हो गया, दफ्तरों और विश्विद्यालयों के बाहर लगे कार्यक्रम के बैनर अगले वर्ष के इंतजार में गायब हो गए। और लोग भूल गए कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा भाषा है,हमारी मातृभाषा है और हमे इसका सम्मान करना चाहिए। प्रत्येक वर्ष इस तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है लेकिन कितनी बार हिंदी को जनगण की भाषा बनाने पर विचार विमर्श किया जाता है?
हिंदी भारत मे सिर्फ 40 फीसदी लोगों की मातृभाषा है, तमिलनाडु और अन्य दक्षिण राज्यों को तो भूल ही जाना बेहतर है वे तो हिंदी को कोषने में कोई कसर ही नही छोड़ते, लेकिन हम हिंन्दी पट्टियों का क्या, हम हिंदी पट्टी के लोग ही इसका सम्मान नही करते तो अन्य भाषी लोगो की शिकायत अमान्य है।
वर्तमान में हमारे देश मे पश्चिम सभ्यता और आधुनिकरण का खासा चलन है ,खास कर हम हिंदी पट्टी के लोगो पर, हम धड़ल्ले से पश्चिमी भाषा का प्रयोग कर रहे है, दूसरी भाषा का ज्ञान और प्रयोग अच्छा है लेकिन अपनी मातृभाषा को साथ लेकर।
युवाओं को हिंदी कुछ रास नही आती। यह भाषा उनके उच्च व्यक्तिव को समाज मे अपमानित करती है, उन्हें लगता है कि अंग्रेजी की दुम पकड़ कर वे उच्च व्यक्तित्व की गिनती में आते है, लेकिन अपनी मातृभाषा को छोड़ कर किसी अन्य भाषा की हठ मूर्खता है।
दक्षिण राज्य और बंगाल के लोग जब भी आपस मे मिलते है वे अपनी मातृभाषा का प्रयोग करते है, क्योंकि वे अपनी मातृभाषा से प्रेम करते है, उनका सम्मान करते है, जबकि हम हिंदी पट्टियों के लोगो के ऐसा करना अपमान जनक लगता है।
इन सब के मध्य अगर कोई व्यक्ति हिंदी का डंडा लिए अपनी मंजिल तय करने का कोशिश करता है तो लोग उसे रूढ़िवादी समझते है पिछड़ी सोच का व्यक्तित्व समझकर उसे दबा दिया जाता है
हिंदी में अतुल्य माधुर्य है, इसके मुहावरे एवं लोकत्तियाँ इसे और धनी और समृद्ध बनाती है फिर भी हम अंग्रेजी की जिद्द पाले बैठे है।