मैं नहीँ, पर बहुत लोग यह मानते हैं कि मानसाहार एक अपराध है। जो लोग माँस का सेवन करते हैं वे निर्दयी हैं और उन्हें इसी वक्त शाकाहारी बन जाना चाहिए।
हमारे पूर्वज
बहुत से लोग यह तर्क देते हैं कि हमारे पूर्वजों ने भी कभी ऐसा काम नहीँ किया। या हमारे धर्म में ऐसा करना पाप माना जाता है।
उनके लिए मैं यह बोलना चाहती हूँ कि हम सबके पूर्वज पहले सिर्फ माँसाहार ही करते थे। जबतक मनुष्य ने खेती कि शुरुआत नहीँ की तबतक पृथ्वी पर सभी माँस का शिखर करते थे। जब लोगों को धर्म और जातियोँ में बाँटा गया उससे के समय पहले से मनुष्य इस धरती पर है और हम सबके पूर्वजों ने माँस का सेवन किया है।
हमारा ध्यान
हमारा ध्यान इसपर ज़्यादा नहीँ होना चाहिए कि हम क्या कहा रहे हैं ( शाकाहार या मानसाहार ) बल्कि इसपर होना चाहिए कि हम कितना खा रहे हैं। हमें केवल उतना ही भोजन करना चाहिए जितने की हमें ज़रूरत है। हम कई बार मज़े के लिए भोजन करते हैं, फिर भले ही हमारे शरीर को भोजन की आवश्यकता न हो, यह करना बिल्कुल गलत है। फिर आप भले ही मानसाहारी भोजन या शाकाहारी भोजन, आप प्रकृति के खिलाफ जा रहे हैं।
मेरे विचार
मैं अपने विचारों से किसीको चोट नहीँ पहुचाना चाहती। मैं उन सभी लोगों की बेहद इज़्ज़त करती हूँ जो शाकाहारी हैं या जो खुद कभी माँस का सेवन नहीँ करेंगे।
पर उनसे एक विनती है, अगर आप नहीँ करना चाहते तो यह आपका फैसला है या आपका विचार है, कृपया अपने विचारों को दूसरों पर ना थोपें। मानसाहारी लोगों को यह कहना कि वे क्रूर हैं या निर्दयी हैं, यह बिल्कुल गलत है।
यह मुद्दा उठाना मुझे इसलिए ज़रूरी लगा क्योंकि खान पान के तरीके से किसीको अपराधी ठहराना गलत है और आजकल यह कई जगह देखने को मिल रहा है। और यहाँ तक कि गीता में लिखा है कि कोई भी मनुष्य अपने हिसाब से खान पान चुन सकता है। सभी के कुछ गुण हैं और कुछ सीमाएँ हैं।