अलिंगी देह: एक संघर्षमयी जीवन

“किन्नर” इस शब्द को सुनते ही हमारे समाज के लोगों के कान खड़े हो जाते हैं। परंतु उन्हें सम्मान नहीं हीन नजरों से देखा जाता है, उन्हें गाली से सुना जाता है। हमारा समाज मर्द और औरत से मिलकर बना है लेकिन इसी समाज में एक तीसरा जेंडर भी है जो हमारे ही सभ्य समाज का एक हिस्सा है, जिसे हमारा समाज थर्ड जेंडर, किन्नर, हिजडा कहकर पुकारता है पूरे समाज के लिए इन्हें एक बदनुमा दाग समझा जाता है। लोगों के लिए यह सिर्फ हंसी के पात्र हैं।
किन्नर समाज के लोग अपनी अलिंगी देह को लेकर जन्म से मृत्यु तक अपमानित, तिरस्कृत औऱ संघर्षमयी जीवन व्यतीत करते हैं, तथा आजीवन अपनी अस्मिता की तलाश में ठोकरें खाते हैं। भारत में किन्नरों को सामाजिक तौर पर बहिष्कृत ही कर दिया जाता है। उन्हें समाज से अलग–थलग कर दिया जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि उन्हें न तो पुरुषों में रखा जा सकता है और न ही महिलाओं में, जो लैंगिक आधार पर विभाजन की पुरातन व्यवस्था का अंग है। यह भी उनके सामाजिक बहिष्कार और उनके साथ होने वाले भेदभाव का प्रमुख कारण है। इसका नतीजा यह है कि वे शिक्षा हासिल नहीं कर पाते। बेरोजगार ही रहते हैं। भीख मांगने के सिवा उनके पास कोई विकल्प नहीं रहता। सामान्य लोगों के लिए उपलब्ध चिकित्सा सुविधाओं का लाभ तक नहीं उठा पाते।
ट्रांसजेंडरों के साथ दुनिया भर में भेदभाव होता है, लेकिन जहां अन्य देशों में इन्हें समाज के अंदर कहीं न कहीं जगह मिल जाती है, वहीं दक्षिण एशिया के हालात अलग हैं। ट्रांसजेंडरों के अलावा किन्नरों के साथ भी भेदभाव का लंबा इतिहास रहा है। जानकारों का कहना है कि 300 से 400 ईसा पूर्व में संस्कृत में लिखे गए कामसूत्र में भी स्त्री और पुरुष के अलावा एक और लिंग की बात कही गई है। हालांकि भारत में मुगलों के राज में किन्नरों की काफी इज्जत हुआ करती थी. उन्हें राजा का करीबी माना जाता था और कई इतिहासकारों का यहां तक दावा है कि कई लोग अपने बच्चों को किन्नर बना दिया करते थे ताकि उन्हें राजा के पास नौकरी मिल जाए।
लेकिन आज हालात यह हैं कि किन्नरों को समाज से अलग कर के देखा जाता है. वे ना ही शिक्षा पा सकते हैं और न कहीं नौकरी कर सकते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने 19 जुलाई 2016 को ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) बिल 2016 को मंजूरी दी थी। भारत सरकार की कोशिश इस बिल के जरिए एक व्यवस्था लागू करने की थी, जिससे किन्नरों को भी सामाजिक जीवन, शिक्षा और आर्थिक क्षेत्र में आजादी से जीने के अधिकार मिल सके।
भारत सरकार का मानना है कि ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) का नतीजा यह होगा कि किन्नर भी अपने आपको इस समाज का एक अंग महसूस कर सकेंगे। उन्हें यह लगेगा कि वे जिस समाज में रहते हैं उसके लिए कुछ बड़ा योगदान देना चाहिए। यह विधेयक भारत में हर संबंधित व्यक्ति को बैठकर यह सोचने को मजबूर कर देगा कि वे किन्नरों की पीड़ा को समझे और कानून का पालन करे। केंद्र, राज्य सरकारों के साथ ही केंद्रशासित प्रदेशों के प्रशासनिक निकायों को यह बात समझना जरूरी है कि उन्हें किन्नरों के मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए और ध्यान देने की जरूरत है।
किन्नरों पर निजी विधेयक
एक साल पहले राज्यसभा ने निजी विधेयक पारित किया था– द राइट्स ऑफ ट्रांसजेंडर्स पर्सन्स बिल 2014, जो किन्नरों के अधिकारों की बात करता था। डीएमके सांसद तिरुचि शिवा ने 2015 में यह विधेयक प्रस्तुत किया था। उस समय यह पूर्व अपेक्षित नहीं था और उस विधेयक को ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) बिल 2016 का पहला वर्जन माना गया। उसी को आधार बनाकर नया विधेयक तैयार किया गया है। सामाजिक न्याय मंत्रालय ने इसे तैयार किया है। हकीकत तो यह है कि चार दशक में पहली बार ऊपरी सदन में किसी निजी विधेयक को मंजूरी दी गई थी।
विधेयक में दंडात्मक प्रावधान
विधेयक के अनुसार किन्नरों का उत्पीड़न या प्रताड़ित करने पर किसी भी व्यक्ति को 6 महीने की जेल हो सकती है। ऐसे मामलों में अधिकतम सजा कुछ वर्षों की भी हो सकती है।
“किसी उदास चेहरे पर खुशियां लाने का मूल्य,
किसी खुश चेहरे की तारीफों से कई गुना अधिक होता है।”
वर्तमान समय में अगर गौर से किन्नरों के समाज मे जाकर देखा जाए या फिर किन्नरों के जीवन पर नज़र दौड़ायी जाए तो साफ नजर आएगा कि इनकी अस्मिता संदिग्धों के घेरे में है। हालाँकि 21वीं सदी में इनको कुछ संवैधानिक अधिकार मिलें है। आज हिजड़ों के प्रति व्यक्तिगत स्तर पर, मोहल्लों में, दफ्तरों में, सरकार की नीतियों में, और समाज के नज़रिए में भी धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। कुल मिलाकर समाज के मन-मस्तिष्क में इन तृतीयलिंगियों के प्रति जो धारणा बनी हुई है उसे बदलने की आवश्यकता है| यह महसूस करने की आवश्यकता है कि ये भी इंसान हैं| हिजड़ा या छक्का आदि सम्बोधनों पुकारा जाना भी एक तरह से इनका उपहास है| इनको भी इंसान समझा जाए। इनको मुख्य धारा मेँ जगह और प्रत्येक स्तर पर अधिकार मिले ,सरकार की तरफ से इसका सटीक प्रयास होना चाहिए| समाज इनके जीवन संघर्ष, इनकी पीड़ा, दर्द, कराह, जद्दोजहद आदि को समझे और कम करने मेँ योगदान दे| प्रत्येक नागरिक मेँ संवेदना होनी चाहिए कि वह उन्हें एक मनुष्य की तरह सम्मान दे, उन्हें प्यार दे।

I Vasundhra vatham student of journalism,delhi university.
I Like book’s, traveling, writing story’s, poem, blog’s, article’s. As a journalism student I believe…Truth never damages a cause