भारतीय परिवेश में दहेज की व्यापक व्याख्या : क्या है कानून और इसकी अहमियत

भारतीय परिवेश में दहेज की व्यापक व्याख्या : क्या है कानून और इसकी अहमियत

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दहेज हत्या के एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि ‘दहेज शब्द की व्यापक व्याख्या दी जानी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि इसमें किसी महिला से मांगी जानेवाली सभी चीजों को, संपत्ति या किसी भी प्रकार की कीमती चीज की मांग को दहेज के अंतर्गत रखा जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ससुरालवालों का घर बनाने के लिए पैसों की मांग जैसी कोई भी मांग ‘दहेज’ के दायरे में आता है। मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना के साथ न्यायाधीश एएस बोपन्ना और न्यायाधीश हिमा कोहली की पीठ ने यह फैसला देते हुए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के पिछले फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें एक व्यक्ति और उसके बेटे को दहेज हत्या के मामले से बरी कर दिया गया था।

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के अनुसार सर्वाइवर ने खुद अपने परिवार के सदस्यों से घर बनाने के लिए ससुरालवालों को पैसे देने को कहा था। इसलिए इसे दहेज का नाम नहीं दिया जा सकता और इस बुनियाद पर अभियुक्त पिता और बेटे को कोर्ट ने बरी कर दिया। भारत में दहेज प्रतिषेध अधिनियम साल 1961 से मौजूद है। भले दहेज मांगने और देने के तौर-तरीकों में बदलाव आए हो, लेकिन आज भी पूरा देश इस समस्या से जूझ रहा है। बीबीसी न्यूज़ में विश्व बैंक के अध्ययन के आधार पर छपी एक खबर बताती है कि पिछले कुछ दशकों में भारत में दहेज लेने और देने की परम्परा स्थायी रही है। वहीं, साल 2020 के शुरुआत में बेंगलुरु जैसे अत्याधुनिक शहर में 16 दिनों में दहेज प्रतिषेध अधिनियम के अंतर्गत 17 मामले दर्ज हुए।

क्या है मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का यह मामला ?

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक गर्भवती महिला के दहेज हत्या के मामले में अभियुक्त पिता और बेटे को इस बुनियाद पर बरी कर दिया था, कि घर बनाने के लिए पैसे की मांग को दहेज की मांग के रूप में नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने यह भी कहा कि खुद महिला ने अपने परिवार से यह मांग की थी। इस मामले में निचली अदालत ने मृत महिला के पति और ससुर को आईपीसी की धारा 304-बी (दहेज हत्या), धारा-306 (अत्महत्या के लिए उकसाने) और धारा-498 ए (दहेज उत्पीड़न) के तहत दोषी ठहराया था। महिला की कथित रूप से ससुरालवालों के घर बनाने के लिए लगातार पैसों की मांग से परेशान होने के कारण आत्महत्या से मौत हो गई थी। मामले में यह भी पाया गया कि आरोपी अपना घर बनाने के लिए अपनी पत्नी से पैसों की मांग कर रहा था। लेकिन उसके परिवार के सदस्य पैसे देने में असमर्थ थे। इस तरह महिला को लगातार परेशान और प्रताड़ित किया गया जिसके कारण उसने खुद को आग लगा ली और उसकी मौत हो गई।

सुप्रीम कोर्ट ने मामले का संज्ञान लेते हुए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का दिया गया फैसला रद्द कर दिया और अभियुक्त पिता और बेटे को आईपीसी के धारा-304 बी के तहत दोषी ठहराया। कोर्ट ने मामले पर टिप्पणी देते हुए कहा कि ‘दहेज’ शब्द का अर्थ विस्तृत रूप में बताया जाना चाहिए। साथ ही, महिला के माध्यम से की गई किसी भी प्रकार की मांग को ‘दहेज’ के अंतर्गत रखा जाना चाहिए। वेबसाइट लाइव लॉ में छपी खबर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दहेज की मांग से जुड़े अपराध और समाज में ऐसे मामलों से निपटने के लिए अदालतों को अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाने की ज़रूरत है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार यह नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि महिला ने ससुरालवालों के दबाव में अपने परिवार को घर बनाने के लिए पैसे देने को कहा। पीड़िता को मजबूर किया जा रहा था और न्यायालय को ऐसी सामाजिक स्थितियों के प्रति संवेदनशीलता से काम लेना चाहिए।

क्या है भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दहेजकी परिभाषा और दहेज मृत्यु?

दहेज प्रतिषेध अधिनियम के अनुसार ‘दहेज’ का मतलब कोई ऐसी संपत्ति या मूल्यवान चीज़ (सिक्यूरिटी) से है जो शादी के समय, उससे पहले या उसके बाद

  • विवाह के एक पक्षकार (पार्टी) का विवाह के दूसरे पक्षकार को या
  • विवाह के किसी भी पक्षकार के माता-पिता का या किसी अन्य व्यक्ति का विवाह के किसी भी पक्षकार को या किसी अन्य व्यक्ति को, पक्षकारों (दोनों पार्टियों) के विवाह के संबंध में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दी गई है या दिए जाने के लिए सहमति हुई है।

आईपीसी की धारा 304 बी के अनुसार जब किसी महिला की मृत्यु जलने या शारीरिक चोट के कारण हुई हो, या शादी के सात साल के भीतर किसी सामान्य परिस्थितियों से भिन्न होती है, और यह दिखाया जाता है कि मृत्यु से ठीक पहले उसके पति या किसी रिश्तेदार ने महिला को दहेज की किसी मांग के लिए या उसके संबंध में उसके साथ क्रूरता की थी या उसे तंग किया था, तो ऐसी मृत्यु को ‘दहेज मृत्यु’ कहा जाएगा और ऐसे पति या रिश्तेदार को मृत्यु का जिम्मेदार माना जाएगा।

दहेज प्रथा और इसकी पितृसत्तात्मक जड़ें

दहेज प्रथा की समस्या ही यह रही है कि समाज इसे समस्या नहीं, एक प्रथा के रूप में देखता है। दहेज प्रथा पर कोई भी लेख या निबंध देखें, तो इसकी शुरुआत लड़की के पिता का, उसकी शादी के वक्त ‘स्त्रीधन’ के रूप में गृहस्थी शुरू करने के लिए दिए गए सामान को बताया जाता है। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि शादी के वक्त लड़की को गृहस्थी की शुरुआत के लिए कोई भी सामान दिए जाने की सोच न सिर्फ समस्याजनक है बल्कि पितृसत्तात्मक भी है। इस प्रथा के मद्देनजर देखें, तो शादी के बाद हम खुद यह उम्मीद करते हैं कि लड़की केवल गृहस्थी तक ही सीमित रहे। शादी के समय पिता का गृहस्थी के लिए सामान थमाने का मतलब यह ज़िम्मेदारी सिर्फ महिला के लिए तय किया जाना है। साथ ही, लड़की को पराया धन मानने की पितृसत्तात्मक सोच को भी यह बढ़ावा देती है। इस प्रथा का विश्लेषण करें, तो हम खुद दिए गए चीजों के बदले, बेटी की सुरक्षा और सुखद वैवाहिक जीवन का सौदा करने जैसा खतरनाक और पितृसत्तात्मक प्रचलन को बढ़ावा दे रहे हैं। इसके अलावा, सिर्फ शादी के वक्त दिए गए ‘सामान’ को लड़की का धन बताना और कानूनी तौर पर उसे पैतृक संपत्ति पाने के अधिकार से वंचित रखना भी समाज के बनाए गए पितृसत्तात्मक नियम है। 

आज हमारे देश में किसी भी शादी में लाखों रूपए या कीमती चीजों का आदान-प्रदान होता है। बदलते समय के साथ दहेज लेन-देन के तरीकों में भी काफी बदलाव आए हैं। मसलन, कई बार लड़के वाले लड़की के परिवार से बारात का उनके अपने परिवार के स्तर या उससे भी बढ़कर स्वागत चाहते हैं। ऐसे में, लड़की का परिवार उसके सुखद भविष्य के लिए सीधे-सीधे तरीके से दहेज न भी दें, तो भी लाखों रूपए खर्च करने को बाध्य हो जाते हैं। हमारे समाज में दहेज लेन-देन हमारी संस्कृति में घुल-मिल गई है। इसलिए अमूमन सामने वाले परिवार की आर्थिक जरूरत या अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखने के लिए नाम पर कभी मांगे या कभी बिन मांगे ही इसे पूरा किया जाता है। दहेज प्रतिषेध अधिनियम होने के बावजूद, दहेज उत्पीड़न और दहेज मृत्यु की बढ़ती संख्या यह प्रमाण करता है कि आज दहेज सिर्फ पैसों तक सीमित नहीं।

हमारे देश में लड़कियों के शादी के लिए दहेज देने के चलन के कारण उनके पैदा होने से उनकी पढ़ाई, खान-पान और उनके रहन-सहन तक, सभी चीज़ें प्रभावित होती है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के ग्रामीण आर्थिक और जनसांख्यिकी सर्वेक्षण (आरईडीएस) के आंकड़ों अनुसार साल 1960 से साल 2008 के दौरान भारत में 95 फीसद शादियों में दहेज का लेन-देन किया गया। साल 2020 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों को देखें, तो, महिलाओं के खिलाफ अपराध में सबसे अधिक 30.2 प्रतिशत मामले पति या उसके रिशतेदारों के किए गए क्रूरता के अंतर्गत दर्ज हुए। गौरतलब हो कि दहेज हत्या, पति या उसके रिशतेदारों के किए गए क्रूरता और दहेज प्रतिषेध अधिनियम के अंतर्गत दर्ज हुए पिछले साल के हजारों मामले अब तक विचाराधीन है। हालांकि, कई नीतिकारों के दलील अनुसार धारा-498 ए यानि महिला के पति या उसके रिशतेदारों के किए गए क्रूरता का दुरुपयोग किया जाता है। लेकिन भारत में दहेज उत्पीड़न से गुजर रही महिला की सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक या शैक्षिक स्थिति और हमारे सामाजिक ढांचे से यह समझा जा सकता है कि ऐसे कानून का होना क्यों महत्वपूर्ण है। दहेज की समस्या को प्रथा न समझकर, समस्या के रूप में देखा जाना जरूरी है ताकि इसे खत्म किया जा सके।  

Originally published on Feminism in India Hindi and re-published here with permission.

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Malabika Dhar

I’m currently working as a Staff Writer for Feminism in India. After completing Bachelors in Hindi language from Presidency College, Kolkata and Masters in Journalism and Mass Communication from Punjab Technical University, I have worked as a journalist and an educator. In my not so long career in journalism, I have worked with English national daily; The Pioneer and English news website; News Avenue.  Growing up in different parts of Bihar, Jharkhand and West Bengal, I have observed and understood religious orthodoxy & superstition, gender and educational inequality prevalent in society. I believe in intersectional feminism and am passionate about working towards gender and educational equality.