आत्महत्या से हो रही बच्चों की मौत, जिसकी वजह हमारी सामाजिक व्यवस्था ही है

आत्महत्या से हो रही बच्चों की मौत, जिसकी वजह हमारी सामाजिक व्यवस्था ही है

भारत में मानसिक स्वास्थ्य का विषय हमेशा से हमारी चर्चाओं से दूर रहा है। जागरूकता, समझ और जानकारी के अभाव में हम अक्सर परिजनों की मानसिक समस्याओं को केवल ‘टेंशन’ बोलकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। आम तौर पर मानसिक स्थिति को लोगों से छिपाना, विशेषज्ञ की सलाह और चिकित्सा से दूर रहना सामान्य माना जाता है। ऐसे में यह रोगी के लिए शर्म, पीड़ा और अलगाव का कारण बन जाता है। पिछले दिनों जारी हुए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े अनुसार साल 2017 से 2019 तक 14 से 18 वर्ष के आयु के 24 हज़ार से अधिक बच्चों की आत्महत्या से मौत हुई। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) बताता है कि दुनियाभर में 15 से 19 साल के बच्चों में आत्महत्या मौत का चौथा सबसे बड़ा कारण है। हालांकि आत्महत्या चरम कदम है लेकिन इसके पीछे समस्या का पता छोटे-छोटे लक्षणों से लगाया जा सकता है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार वैश्विक स्तर पर 20 फीसद किशोर कभी न कभी मानसिक विकार का अनुभव करते हैं। भारत जैसे निम्न और मध्यम आय वाले देशों में लगभग 15 फ़ीसद किशोरों ने आत्महत्या करने पर विचार किया है। भले ही यह संकट भयानक गरीबी, भूख, हाशिए पर रह रहे समुदायों या संसाधनों की कमी से संबंधित हो, लेकिन इसका कोई निश्चित चेहरा या दायरा नहीं है।  

एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि साल 2018 की तुलना में साल 2019 में आत्महत्या के मामलों में 3.4 फ़ीसद बढ़ोतरी हुई। द हिन्दू में छपी एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार यह संख्या विद्यार्थियों में भी समान रूप से बढ़ी है। साल 2017 में आत्महत्या से मरने वाले विद्यार्थियों की संख्या 9,905 थी। वहीं, साल 2016 में यह 9,478 और साल 2018 में यह संख्या बढ़कर 10,159 तक जा पहुंची थी। भले ही ये आंकड़े विचलित करने वाले हो, लेकिन समस्या की जड़ हमारी शिक्षा व्यवस्था ही है। मेडिकल पत्रिका द लैंसेट के अनुसार कोरोना महामारी से पहले भी भारत में 15 से 29 वर्ष के आयु वर्ग में आत्महत्या से मौत का दर दुनिया में सबसे अधिक था।

छात्रों की समस्याओं को बेहतर समझने के लिए यह ज़रूरी है कि हम उनके विचारों को महत्व दें। साथ ही, हमारे शैक्षिक संस्थानों की व्यवस्था और भारतीय घरों के माहौल को समझना ज़रूरी है। अमूमन, हमारे घरों में लड़कों को इंजीनियर या डॉक्टर और लड़कियों को कोई आसान विषय चुनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ये फैसले बच्चों के रुझान को ताक पर रखकर सामाजिक दबाव, दक़ियानूसी और रूढ़िवादी सोच के अधीन लिए जाते हैं। अच्छे स्कूल या कॉलेज में दाखिला हर छात्र का सपना होता है। लेकिन शिक्षा के व्यवसायीकरण और निजीकरण के दौर में, अब यह सिर्फ अच्छे छात्र की पहचान नहीं बल्कि माता-पिता के अधूरे सपने के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक हैसियत दिखाने का ज़रिया बन चुका है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि जिस उम्र के बच्चों की बात हो रही है, वह नाज़ुक मानसिक अवस्था का समय होता है। भविष्य की चिंता, आगे निकलने की होड़, अच्छी नौकरी की तलाश, पारिवारिक और सामाजिक दबाव, आगे की पढ़ाई या व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं के कारण तनाव, चिंता या अवसाद इस उम्र में आम होते हैं। 

शैक्षणिक संस्थानों के दुर्व्यवहार और परिवार के दबाव का बच्चों पर असर

बिज़नस इंसाईडर इंडिया में छपी मानव संसाधन और विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) में पिछले पांच वर्षों में 60 छात्रों की आत्महत्या से मौत हुई है। भारत के प्रमुख संस्थानों में भर्ती होने के बाद भी छात्रों की आत्महत्या से मौत लगातार तनाव, आगे बढ़ने की होड़, अत्यधिक चिंता, आर्थिक परेशानी, जातिगत भेदभाव और यौन हिंसा जैसे मानसिक विकार पैदा करने वाले कई छिपे कारकों को दर्शाता है। समाज के भीतर होने वाले सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों के लिए शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण और शक्तिशाली कारक है। जबकि किसी बच्चे की पहली शिक्षा घर से शुरू होती है, आम तौर पर अधिकांश परिवार सामाजिक कंडीशनिंग और पितृसत्ता के मानदंडों द्वारा नियंत्रित होते हैं। हाल में ही आईआईटी खड़गपुर के प्रोफेसर की अपमानजनक टिप्पणी और जातिवादी बयान या बेंगलुरु के क्राइस्ट विश्वविद्यालय के प्रॉक्टर का आपत्तिजनक बयान दर्शाता है कि आज भी भारतीय शैक्षिक संस्थान बच्चों को समान, सुरक्षित और समावेशी परिवेश देने से कोसों दूर है।

भारतीय परिवारों में बच्चों पर सरकारी नौकरी करने के लिए भी अस्वाभाविक दबाव दिया जाता है। हमारे देश में बच्चों की करियर काउंसिलिंग का प्रचलन नहीं है। ऐसे में किसी निश्चित दिशा में उनके रुचि या योग्यता को तय कर देना उनके जीवन से खिलवाड़ करने जैसा ही साबित हो सकता है। सरकारी नौकरी की सुविधाओं का लालच और नौकरी न छूटने का मोह ही उनके जीवन के इस अहम फैसले में साथ देती है। बच्चों पर इस पारिवारिक और सामाजिक दबाव के कारण आने वाले दिनों में शारीरिक या मानसिक नुकसान होने की संभावना बनी रहती है। साल 2015 में उत्तर प्रदेश सेक्रेटेरियट में चपरासी के 368 पदों के लिए 23 लाख से ऊपर आवेदन आए। वहीं, महाराष्ट्र सेक्रेटेरियट में वेटर के मात्र 13 पदों के लिए 7000 आवेदन मिले। इसी तरह रेल्वे के ग्रुप-डी में भर्ती के लिए 90 हज़ार सीटों के बदले 25 लाख से ऊपर आवेदन मिले। एस्पायरिंग माइंड्स की साल 2019 की राष्ट्रीय रोजगार रिपोर्ट अनुसार सिर्फ 3 प्रतिशत भारतीय इंजीनियरों के पास एआई, मशीन लर्निंग, डेटा इंजीनियरिंग और मोबाइल टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में नए जमाने का कौशल है।

विद्यार्थियों का मानसिक स्वास्थ्य भी है एक अहम मुद्दा

पिछले दो सालों से कोरोना महामारी के दौरान महामारी की रोकथाम, बचाव और इलाज ही पूरी दुनिया की प्राथमिकता बन गई। इस महामारी ने हमारे जीवन में बदलाव के साथ-साथ कई अन्य समस्याओं को भी जन्म दिया। लगभग दो वर्ष से घर से ऑनलाइन पढ़ाई करते बच्चों की समस्या ऐसी ही एक नयी समस्या है। लॉकडाउन होने से देश में बंद स्कूलों के कारण प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में नामांकित 247 मिलियन बच्चे प्रभावित हुए। हालांकि बच्चों की शिक्षा जारी रखने के लिए सरकार द्वारा वेब पोर्टल, मोबाइल ऐप, टीवी चैनल, रेडियो और पॉडकास्ट जैसे कई उपायों को शुरू किया गया लेकिन देश में आज भी सिर्फ 24 फीसद परिवारों के पास इंटरनेट की पहुंच है। 42 फीसद शहरी इलाकों की तुलना में महज 15 फ़ीसद ग्रामीण परिवारों के पास इंटरनेट की सुविधा है। वहीं, एनएसएस की रिपोर्ट बताती है कि 76 फ़ीसद परिवारों में कम से कम एक छात्र ग्रामीण भारत से है। केरल में देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के बाद से अब तक 18 साल से कम उम्र के 66 बच्चों और किशोरों की आत्महत्या से मौत हुई है। इस चौंकाने वाली खबर से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ऑनलाइन पढ़ाई की कमी या स्कूल के बंद होने का बच्चों पर कितना गहरा असर हो रहा है।

गौरतलब हो कि देश में, विशेष कर ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था सरकारी अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर ही टिकी होती है। ऐसे में, ग्रामीण इलाकों में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए भी लोग जिले के एकमात्र अस्पताल या स्वास्थ्य केंद्र पर ही निर्भर करेंगे। इसके अलावा, ये केंद्र अधिकतर आशा कर्मचारियों से संचालित होती हैं जो खुद मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी, साधन और संवेदीकरण के अभाव से ग्रस्त हैं। भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लोगों के रवैये के पीछे संसाधनों और जानकारी की कमी, रूढ़िवादी सोच और सामाजिक प्रतिबंध काम करते हैं। मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अज्ञानता और दक़ियानूसी सोच हमें इस विषय पर खुलकर बात करने या चिकित्सा से दूर कर देती है।

देश में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सरकारी अस्पतालों की बात करें तो, महज 43 अस्पताल मौजूद हैं। जबकि मानसिक विकारों की चिकित्सा के लिए साल 1982 से ही देश में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाई जा रही है, लेकिन इस कार्यक्रम की विभिन्न योजनाओं के तहत किसी प्रकार की मानसिक बीमारी या मानसिक मंदता से पीड़ित व्यक्ति को कोई वित्तीय लाभ प्रदान नहीं किया जाता है। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 2 फीसद से भी कम स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च करता है। लचर स्वास्थ्य व्यवस्था और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही और गैर-ज़िम्मेदारी बच्चों की परेशानियों में इजाफ़ा कर रही है। समाज बच्चों के व्यवहार की ज़िम्मेदारी कभी मां-बाप, कभी सिनेमा तो कभी दोस्तों पर मढ़ देता है लेकिन अब वक़्त है कि उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए हम दूसरों पर दोष न मढ़ कर इस समस्या को गंभीरता से ले और हर कोई अपनी ज़िम्मेदारी निभाए।

Originally published on Feminism in India Hindi and re-published here with permission.

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Malabika Dhar

I’m currently working as a Staff Writer for Feminism in India. After completing Bachelors in Hindi language from Presidency College, Kolkata and Masters in Journalism and Mass Communication from Punjab Technical University, I have worked as a journalist and an educator. In my not so long career in journalism, I have worked with English national daily; The Pioneer and English news website; News Avenue.  Growing up in different parts of Bihar, Jharkhand and West Bengal, I have observed and understood religious orthodoxy & superstition, gender and educational inequality prevalent in society. I believe in intersectional feminism and am passionate about working towards gender and educational equality.